Sunday, September 28, 2014

अधूरी बातें... (2)

This poem is again from my diary.. I wrote this on May 1, 2009

जब तुमने नजरें उठा कर मुझे देखा
तो जैसे बहता सा समय रुक गया
चलती हुई हवा थम गयी
और धड़कनें मेरी कुछ कम हुई ।

जब तुमने नजरें उठा कर मुझे देखा
तो एक ख्वाब पलकों पर आया
जिसमें मैंने तुम्हें अपना पाया
और मेरे प्यार ने मुझे अपनाया ।

जब तुमने नजरें उठा कर मुझे देखा
तो गालों को मैंने अपने गीला पाया
ये ख्वाब मुझे बस ख़्वाब ही नज़र आया
और मैंने स्वयं को वर्तमान में पाया ।

जब तुमने नजरें उठा कर मुझे देखा
तो तुम्हारी आँखों में मैंने ख़ुद को ढूंढा
सोचा कहीं तो मेरा अक्स नज़र आएगा
पर खुद को वहाँ ना पाकर
मैंने सोचा
ये गुनाह नज़रों का ही तो था
जिसने मेरे दिल में एक तूफां उठाया
और मैंने फिर से खुद को तन्हा पाया । 

Wednesday, September 10, 2014

समय

जीवन के कुछ लम्हों को
मैंने रोकना चाहा था
पर मुट्ठी में रेत को
क्या कोई पकड़ पाया है ?

जब समय हाथ से निकल गया
तब सिर्फ कुछ यादें बची थी
उन लम्हों की मस्तिष्क में
बस एक छाप रह गयी थी

ये यादें ही तो समय है
जो निरंतर बहता रहता है
मैंने उस बहते समय से
बस एक गगरी भर रखली हैं।